देवता और ईश्वर
वेद के अनुसार ईश्वर सर्वव्यापक सर्वाधिष्ठान और एक है । वह अखिल ब्रह्माण्ड और उनके अधिष्ठातृ देवताओं के भी स्वामी तथा स्वप्रभु है । देवता अनेक हैं । देवताओं का कोई स्थूल रूप नहीं होता । ये अत्यन्त सूक्ष्म और दिव्य हैं ; शास्त्रीय कर्म और उपासना के अंग हैं । इनका सामर्थ्य एक ही ब्रह्माण्ड में सीमित है । अलग अलग ब्रह्माण्ड के अलग अलग ब्रह्मादि देवगण होते हैं । देवता निर्दिष्ट शक्ति या सामर्थ्य के अधिकारी हैं । ये अपने अपने अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत सीमित फल ही उपासक के लिये प्रदान करते हैं । ईश्वर कोई याग-प्रविष्ट देवता नहीं है । सगुण ईश्वर की उपासना से अभीष्ट फल की प्राप्ति हो सकती है , सायुज्यादि मुक्ति की भी प्राप्ति हो सकती है । निष्काम भाव से की गयी ईश्वर उपासना तत्पदार्थ शोधक के रूप में ब्रह्मज्ञान में हेतु है । निर्गुण ब्रह्म का ज्ञान मोक्ष प्रदान करता है ।
कर्मफल के दाता , प्रकाशमान और द्युलोक में रहने के कारण ये देवता कहलाते हैं । ईश्वर जगत का अभिन्न- निमित्त-उपादान-कारण है । माया का अधिष्ठान है । देवता भी परमेश्वर की माया शक्ति के अधीन ही होते हैं । सगुण ईश्वर की वैदिक उपासना विधि से पृथक् आगमों की उपासना विधि में यथा-सम्प्रदाय नाम रूप और गुणों का अतिरिक्त अनुदेश है । किंतु पौराणिक अर्थवादात्मक विषय को छोड़कर देखें तो परमेश्वर ही समस्त सृस्टि , स्थिति , लय , अनुग्रह और तिरोधान का कर्ता है - इस प्रकार का अभिनिश्चय शैव, शाक्त और वैष्णव आदि सभी आगम में स्वीकृत है । जीव में कर्माधिकार, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, और देहाभिमान है । देवताओं का दिव्य भोग में अधिकार है । ये देवत्व के अभिमान से युक्त होते हैं । किंतु सामान्य जीव में रहने वाली मूढ़ता देवताओं में नहीं होती है । ये प्रवल ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य से सम्पन्न होते है । तथापि दिव्यगुणानुसंगता यहां पर भी है । परमेश्वर अत्यन्त निर्लिप्त और असंग चित्पदार्थ है । सब का उपादान और निमित्त हो कर सब से अभिन्न होते हुये भी सब से अतिरिक्त और अपरिणामी है ।
अवतारवाद ईश्वर-उपासना का अनिवार्य अंग नहीं है । किन्तु इस से श्रद्धा और आस्तिक्य की वृद्धि होती है । वैसे मूर्ति-पूजा भी यथार्थ उपासना में अतिरिक्त विशिष्ट भूमिका ग्रहण नहीं करती । उपास्य लिंग विग्रहादि केवल प्रारंभिक अवस्था में एकाग्रता के सम्पादनार्थ सहायक हैं । किन्तु शास्त्रीय पारमार्थिक बोध के विना मूर्ति पूजा भी एक धार्मिक पाखण्ड ही है ।
वैदिक कर्म या उपासना में देवता का ध्यान नहीं किया जाता । विनियोग स्थान में मंत्र के पाठ से ही देवता की उपस्थिति मानी जाती है । आगमों के अनुसार उपासना में ध्यान पूर्वक अपने अन्तःकरण को देवता के स्वरूप में ढाला जाता है । यही यहां देवता की उपस्थिति है । तब बाह्यपूजारूप बहिर्याग ध्यानात्मक अन्तर्याग के लिये ही समर्पित है ; यही सिद्धान्त है । ईश्वर उपासनामें द्रव्यादि त्याग सहित कर्तृत्व आदि के अभिमान का त्याग और समर्पण भाव ही मुख्य है । सकाम उपासना निष्काम भाव का हेतु नहीं है । सकाम ईश्वर उपासक की बुद्धि में विद्यमान ईश्वर संबंधी ज्ञान आगे चलकर उपासक के निष्काम होनेपर तत्त्वबोध का उपकारक होता है । किंतु केवल देवताओं के उपासक के लिये देवताओं का दासत्व या पशुत्व लाभ ही सार होता है ।
निगमागम विधि और ज्ञान से रहित कल्पित ग्राम्य देवताओं की उपासना केवल मनोरञ्जन ही है ; मूढ़ता और जड़ता से पूर्ण है । उसका कोई फल नहीं है । सम्प्रति प्राचीन या आधुनिक बड़े बड़े प्रसिद्ध अथवा साधारण मंदिरों में ट्रस्टी, पुजारी, तीर्थयात्री, दानकर्ता या मंदिर प्रशासन के हित केलिये समर्पित जिस पूजा पाठ की परिपाटी प्रचलित है वह धर्म या अध्यात्म की यथार्थता के विपरीत है । विवेकी जन इन सब के लिये अपना समय , धन या एकाग्रता को खराब नहीं करते हैं ।
सनातनी सदीप गुप्ता
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